Astrology

मांगलिक दोष के बारे में ये बातें प्रचलित धारणाओं को सही तरीके से जानने में मदद करेगी.

 दोष जानने से पूर्व मंगल ग्रह के बारे में जानना आवश्यक है. मंगल में शारीरिक व मानसिक सामर्थ्य होता हे . इसका उदाहरण देश को स्वतंत्र करवाने वाले क्रांतिकारियों में तथा देश की रक्षा करने वाले सेन्य अधिकारियों में देखा जा सकता है. मंगल का वर्ण क्षत्रिय है व तत्त्व इसका अग्नि है. मंगल के प्रभाव से व्यक्ति साहसी होता है . इन्हीं कारणों से ऐसा माना जाता है कि एक मांगलिक व्यक्ति दूसरे मांगलिक व्यक्ति के साथ शांतिपूर्वक रह सकता है

यदि मंगल प्रथम ,चतुर्थ, सप्तम, आठवे तथा बारहवे भाव या स्थान में होता है तो कुंडली मांगलिक कहलाती है . कतिपय ज्योतिषियों द्वारा एक भय पैदा कर दिया जाता है जबकि भयभीत होने जैसी कोई बात नहीं होती है

भावों में स्थित राशियों का भी Important role है

उदाहरण यदि मंगल मेष, वृश्चिक, मकर, कर्क व धनु राशियों में है तो मंगल दोष नहीं क्योंकि मेष व वृश्चिक मंगल की स्वयं की राशियां है , मकर इसकी उच्च राशी है एवं कर्क व धनु मित्र राशी है .

यदि मंगल गुरु से दृष्ट है तो भी मंगल दोष नहीं होता है

यदि मंगल मित्र राशियों में जैसे धनु, मीन, कर्क व सिंह में है तो भी मंगल दोष नहीं होता है                

        गंडमूल संज्ञक नक्षत्र को क्यों अशुभ माना जाता है

संधि काल ( Transitional Period ) सदेव से ही अशुभ व असमंजसपूर्ण माना जाता रहा है. संधि से तात्पर्य एक की समाप्ति तथा दुसरे का प्रारंभ , चाहे वह समय का हो या स्थान का हो . रोगों की उत्पति अधिकतर ऋतुओ के संधिकाल में होती है , कमरे व बरामदे के मध्य (दहलीज) शुभ कार्य वर्जित है .हिरन्यकश्यप का अंत भी संधि का ही एक उदाहरण है.

ज्योतिष में भी नक्षत्र संधि संधिकालीन स्थिति का उदाहरण है . यहां नक्षत्र संधि व राशी संधि जो एक साथ आती है, के बारे में संक्षेप में बताया जा रहा है.

प्रत्येक नक्षत्र में 4 चरण होते है व एक राशी में 9 चरण अथवा सवा दो नक्षत्र होते है. भचक्र के एक तृतीयांश में 120 अंश होते है इसमें 4 राशी होती ह तथा 9 नक्षत्र होते है. यदि राशी को देखा जाय तो प्रत्येक तृतीयांश की राशी अग्नि तत्त्व से प्रारंभ होकर जल तत्त्व वाली राशी पर समाप्त होता है. जन्म कुंडली में ये तृतीयांश लग्न ,पंचम व नवम भाव होते है. ये तीनों बिंदु ऐसे बिंदु है जहां नक्षत्र व राशी समाप्त व प्रारंभ होते है और ये बिंदु ही संधि स्थान होते है. इस तरह रेवती (मीन ) समाप्त होकर अश्विनी (मेष ) प्रारंभ , आश्लेषा (कर्क) समाप्त होकर मघा (सिंह) का प्रारंभ तथा ज्येष्ठा (वृश्चिक) समाप्त होकर मूल (धनु) प्रारंभ होता है.

 मीन (रेवती), कर्क (आश्लेषा) तथा वृश्चिक (ज्येष्ठा) राशियां जल प्रधान राशियां है जबकि मेष (अश्विनी), सिंह (मघा) तथा धनु (मूल) राशियां अग्नि तत्त्व प्रधान राशियां है . इन राशियों के संधि स्थल तत्वों के आधार पर अशुभ माने जाते है.

सबसे अधिक अशुभ संधि स्थान के नक्षत्र के चतुर्थ चरण व अगले नक्षत्र के प्रथम चरण ही अधिक अशुभ होता है तथा परिवार पर बूरे प्रभाव डालता है , लेकिन कभी कभी ऐसा देखा गया हे की इन नक्षत्रों में जन्म लेने वाले जीवन में शिखर पे पहुंचते है. तुलसीदास जी व कबीरदास जी इसके उदाहरण है I

ज्योतिष में सही फलित के लिए ग्रह के अंश जानना आवश्यक है न कि केवल राशी .

यह एक उदाहरण से स्पष्ट है .

यदि शनि मेष राशी के 2 अंश ( अश्विनी नक्षत्र के प्रथम चरण ) पर स्थित हे , जिसका नवांश भी मेष है जो शनि के लिए नीच राशी नवांश है , लेकिन शनि यदि मेष राशी के 21 अंश ( भरणी नक्षत्र तृतीय चरण ) पर स्थित तो नवांश चक्र में शनि तुला नवांश का होता है जो कि शनि के लिए उच्च का नवांश है . इस तरह मेष राशी में होने पर भी शनि अलग अलग फल देगा . उच्च के नवांश के फल अच्छे होंगे तथा नीच नवांश के फल उतने अच्छे नहीं होंगे .

इसी तरह यदि शनि तुला राशी में 2 अंश या 21 अंश पर होता हे तो शनि क्रमशः तुला नवांश एवं मेष नवांश में चला जाता हे एवं फल भी अपने उच्च एवं नीच नवांश के अनुसार देता हे .

डा मीरा

कालसर्प योग

कुंडली में कालसर्प दोष है, ऐसा सुनकर भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है. यह योग जातक को साहसी व सघर्षशील बनाता है. निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है. ऐसे योग में जन्म लेने वाले असाधारण प्रतिभा के धनी होते है. श्री धीरुभाई अम्बानी इसके उदाहरण है. जो लोग अकर्मण्य होते है वही लोग पीछे रह जाते है .

कालसर्प योग अथवा सर्प योग अथवा पितृदोष का उल्लेख बृहत्जातक तथा बृहत्पराषर होरा शास्त्र में मिलता है. इस योग का निर्माण राहु व केतु की वजह से होता है. राहु व केतु को छायाग्रह माना गया है. राहु का स्वभाव शनि वत व केतु का स्वभाव मंगलवत माना जाता है. राहु को सर व केतु को धड़ माना गया है.

यह योग पूर्व जन्म के किसी अपराध या शाप के फलस्वरूप जन्मकुंडली में परिलक्षित होता है. राहु जिस भाव में होता है उसके भावेश ,उस भाव में स्थित ग्रह को प्रभावित करता है लेकिन केतु जिस भाव में बेठता उस राशी, उसके भावेश या दृष्टि डालने वाले ग्रह के प्रभाव में क्रिया करता है. केतु चूंकि मंगल के समान कम करता है इसीलिए विध्वंसकारी होता है तथा राहु की दशा बाधाकारी होती है .

कालसर्प योग राहु से केतु की और बने योग को कहते है. जब सब ग्रह इनके मध्य आ जाते है तो इनका प्रभाव पड़ना अवस्यम्भावी हो जाता है राहु व केतु हमेशा वक्र गति से चलते है .

कालसर्प योग का निर्धारण सावधानी से करना चाहिए , जैसे ग्रह की स्थिति , ग्रह की युति आदि . यदि राहु की युति किसी अन्य ग्रह से है एवं उस ग्रह का बल अधिक है तो कालसर्प योग भंग भी हो जाता है .

कालसर्प योग का प्रभाव अल्पकालिक होता है यदि कुंडली में निम्न योग बनते है .

कुंडली में यदि पंचमहापुरुष योग है .

कुंडली में बुधादित्य योग है .

यदि लग्नेश बलवान है .

कालसर्प योग 12 प्रकार के होते है जो भाव के आधार पर होते है . उदाहरण के तोर पर यदि मेष लग्न है और राहु लग्न में है तथा केतु सप्तम भवन में है एवं सब ग्रह मेष राशी व तुला राशी के मध्य दायी (Right) तरफ हो .

कालसर्प योग शांति के लिए भारत में कुछ नियत स्थान है जहां पर पूजा वगेरह की जा सकती है I

राहु एवं केतु ग्रह (छाया ग्रह)

Astrology merely provides a sketch (guide line) for future on the basis of position of planets at the time of birth and can be changed with KARMA (good deeds) .

प्रायःज्योतिष में राहु व केतु को छाया ग्रह माना जाता है लेकिन स्कन्दपुराण, याज्ञवल्क्य स्मृति व अमरकोश में इसका वर्णन मिलता है जिससे राहु व केतु की सत्ता से इंकार नहीं किया जा सकता है. स्कन्दपुराण के अवन्ति खंड के अनुसार उज्जैन, राहु व केतु की जन्म भूमि है क्योंकि महाकाल वन में ही अमृत का वितरण हुआ. कथा बताती है कि स्वर्भानु नामक एक देत्य था एवं उसकी माता का नाम सिहिंका था जो हिरण्यकशिपू की बहन थी. अमृत वितरण के समय स्वर्भानु ने अमृत पान कर लिया था और सूर्य व चन्द्र के कारण भगवान विष्णु ने दण्डित किया था . इसलिए हमेशा के लिए सूर्य व चन्द्र के शत्रु बन गये .

राहु यदि जन्म चक्र में बलवान है तो, जातक युद्ध प्रेमी होता है , स्नेहशील होता है ,लेखन में चतुर होता है ,आत्म विश्वास से भरपूर होता है, प्रभाव शाली व्यक्तित्व का धनी होता है ,बहादुर होता है ,सम्मान का भूखा होता है और वीर चक्र प्राप्त करने वाले व्यक्तियों का भी राहु बलवान होता है. राहु को ज्ञान का कारक भी माना गया है .उत्तरकालामृत के अनुसार विदेश गमन भी राहु के कार्य क्षेत्र में आता है , राहु को Consulate Officer भी माना है . यदि राहु 3rd,9th,12th house activate करता है तो व्यक्ति विदेश यात्रा करता है .

राहु यदि कमजोर है तो व्यक्ति बुद्धिहीन, स्वार्थी, मिथ्याचारी व दूसरों को दोष देने वाला होता है.

राहु यदि शुभ बुध के साथ है तो वैज्ञानिक व व्यापारी बनाता है , शुभ गुरु के साथ है तो अध्यात्म देता है, शुभ शुक्र के साथ है तो कलाकार बनाता है ,शुभ शनि के साथ है तो technical line में एवं शुभ मंगल के साथ है तो uniform services में मददगार होता है I

शनि ग्रह

Astrology merely provides a sketch (guide line) for future on the basis of position of planets at the time of birth and can be changed with KARMA .

शनि ग्रह के बारे में समाज में भ्रांतिया है कि शनि ग्रह को बिना वजह नुकसान पहुंचाने वाला बताया है . स्कन्द पुराण के अनुसार शनि द्वारा काशी में शिव की आराधना करने पर शिव ने दंडनायक की उपाधि प्रदान की तथा दंडनायक ग्रह घोषित किया . इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि शनि सबको उनके इस जन्म व पूर्वजन्म के कर्मोनुसार निष्पक्ष दंड का निर्णय करता है.

शनि ग्रह की वेशभूषा काली है क्यों कि न्याय के क्षेत्र में काले रंग का विशेष महत्व है . वराहमिहिर ने शनि के शुभ सम्बन्ध होने पर शनि प्रधान व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला है . शनि प्रधान व्यक्ति अभिमान रहित , उदार,राष्ट्रोपयोगी कार्य में तत्पर एवं परोपकारी वृति के होते है. ऐसे लोग आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति के इच्छुक व विद्वान होते है . शास्त्रों का गूढ़ अभ्यास व लेखन इनके स्वभाव में होता है .दूसरों का सुख चाहने वाले होते है , मधुरभाषी होते है लेकिन शुभ सम्बन्ध न होने पर ठीक इसके विपरीत होता है यानि नीच वृति वाले ,झूठ बोलने वाले व दुराचारी होते है .

शनि ग्रह की दशा में कष्ट के कुछ उदाहरण पुराणों में मिलते है जैसे पांडवों का वनवास, रावण की दुर्गति , राजा विक्रमादित्य की दुर्दशा व राजा हर्रिश्चंद्र .

शनि ग्रह की पीड़ा से मुक्ति के लिए पुराण में कुछ उपाय बताये गये है (उपाय किसी विद्वान की सलाह लेकर ही अपनाये) व अच्छे कर्म करने की सलाह दी गयी है .

1. हनुमान जी की स्तुति करने वालों को शनि कष्ट नहीं पहुचाता है .

2. शनिवार को पीपल की पूजा करने पर भी शनि कष्ट नहीं पहुंचाता है I

ज्योतिष में सही फलित के लिए ग्रह के अंश जानना आवश्यक है न कि केवल राशी .

यह एक उदाहरण से स्पष्ट है .

यदि शनि मेष राशी के 2 अंश ( अश्विनी नक्षत्र के प्रथम चरण ) पर स्थित हे , जिसका नवांश भी मेष है जो शनि के लिए नीच राशी नवांश है , लेकिन शनि यदि मेष राशी के 21 अंश ( भरणी नक्षत्र तृतीय चरण ) पर स्थित तो नवांश चक्र में शनि तुला नवांश का होता है जो कि शनि के लिए उच्च का नवांश है . इस तरह मेष राशी में होने पर भी शनि अलग अलग फल देगा . उच्च के नवांश के फल अच्छे होंगे तथा नीच नवांश के फल उतने अच्छे नहीं होंगे .

इसी तरह यदि शनि तुला राशी में 2 अंश या 21 अंश पर होता हे तो शनि क्रमशः तुला नवांश एवं मेष नवांश में चला जाता हे एवं फल भी अपने उच्च एवं नीच नवांश के अनुसार देता हे I

डा. मीरा

श्राद्ध पक्ष क्यों रखते हे तथा पितृदोष क्या है व दोष को दूर करने के उपाय

पितृदोष के बारे में एक किवदंती है कि महाभारत काल में कर्ण की मृत्यु होने पर जब स्वर्ग में पहुंचे तब उन्हें स्वर्ग में सोना परोसा गया , देवराज इन्द्र से पूछने पर बताया कि कर्ण ने हमेशा सोने का ही दान किया था कभी खाना नहीं दान किया . इसलिए कर्ण को अपनी गलती सुधारने के लिए 16 दिन के लिए पृथ्वी लोक पर भेजा, जहां कर्ण ने पुर्वजों को याद करते हुए उनका श्राद्ध किया व आहार दान किया . इन्हीं 16 दिनों को श्राद्ध पक्ष कहा जाता है .

Astrologically जब नवम भाव,या नवमेश,या चन्द्रमा से नवम भाव या चन्द्रमा से नवम भाव का मालिक अगर राहु या केतु से ग्रसित हो तो पितृ दोष होता है .नवम भाव में सूर्य व राहु की युति होती है, तब भी पितृ दोष होता है .ऐसा माना जाता है की पूर्वजों की इच्छाऐ अधुरी रहने पर यह दोष होता है . नवम भाव को धर्म का घर माना जाता है.

दोष को दूर करने के उपाय :

1. ऐसा पुस्तकों में उल्लेख मिलता है कि पितृदोष को दूर करने के लिए पीपल व बरगद के पेड़ अधिक से अधिक लगाने चाहिए.

2. भोजन व वस्त्र दान करने चाहिए  

डा.मीरा